स्थान: गुरुकुल टटेसर-जोंती, दिल्ली
प्रेरणा: आचार्य परमदेव मीमांसक जी के आह्वान पर आयोजित
उद्देश्य: आर्य समाज की वर्तमान स्थिति पर विचार-विमर्श और आर्य विद्या के प्रचार-प्रसार को गति देना
मुख्य विषय:
युवाओं को आर्य विद्या से जोड़ना
आर्य प्रशिक्षण शिविरों के आयोजन की महत्ता
प्रमुख निर्णय:
युवाओं के लिए विशेष आर्य प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन
आचार्य परमदेव मीमांसक जी द्वारा पाठ्यक्रम निर्माण का उत्तरदायित्व
आर्य समाज के आचार्यों, विद्वानों और सन्यासियों द्वारा पूर्ण सहयोग का आश्वासन
स्थान: आर्य केंद्रीय सभा, करनाल (प्रधान आर्य लोकनाथ जी के निवास पर)
मुख्य पहल:
आर्य लोकनाथ जी ने स्वयं को आर्य प्रचार-प्रसार अभियान हेतु समर्पित किया
करनाल से आर्य प्रशिक्षण शिविरों का शुभारंभ
प्रचार-प्रसार का विस्तार:
उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में शिविरों का आयोजन
त्रिदिवसीय आवासीय शिविरों में आर्य आचार-विचार पर विस्तृत शिक्षण
परिणाम:
आर्य समाज में नई जागरूकता और उत्साह का संचार
सप्त दिवसीय विशेष शिविरों का आयोजन, स्वाध्याय और अध्ययन में प्रगति
प्रमुख आयोजन:
१० दिवसीय विशेष अधिवेशन, प्रशिक्षित आर्यों के लिए
चर्चा के मुख्य विषय:
आर्यों की वर्तमान स्थिति
आर्य विद्या की महत्ता और आर्य सभ्यता की रक्षा
भावी कार्ययोजना पर व्यापक विचार-विमर्श
महत्वपूर्ण निर्णय:
आर्य निर्माण को गति प्रदान करना
प्रत्येक ग्राम और नगर में आर्य सिद्धांतों का प्रचार
त्रिदिवसीय शिविरों को द्विदिवसीय सत्रों में बदलने पर विचार
परिणाम:
अभियान को सफलता और गति प्राप्त हुई
तिथि: चैत्र शुक्ल प्रतिपदा २०६५
स्थान: गुरुकुल टटेसर-जोंती, दिल्ली
प्रमुख आयोजन:
स्वराज्य यज्ञ:
विशिष्ट आर्यों को आमंत्रित किया गया
स्वराज्य प्रतिस्थापना पर गहन चर्चा
आचार्य गुरुकुल की स्थापना:
लगभग १० आर्यों ने आवेदन किया
महत्वपूर्ण निर्णय:
"राष्ट्रीय आर्य निर्मात्री सभा" का पंजीकरण
पदाधिकारी नियुक्तियाँ:
अध्यक्ष: पं. लोकनाथ जी (करनाल)
महासचिव: आर्य अशोक पाल जी (करनाल)
परिणाम:
द्विदिवसीय आर्य प्रशिक्षण सत्रों में तीव्र गति
आर्य निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र निर्माण अभियान की प्रगति
स्थान: जींद, हरियाणा
उपस्थिति:
लगभग २०,००० आर्य-आर्याओं की भागीदारी
हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान एवं अन्य प्रदेशों से युवा वर्ग की सक्रिय भागीदारी
विशेष उपलब्धि:
आर्य निर्माण के इतिहास में मील का पत्थर
प्रांतीय आर्य निर्मात्री सभाओं का गठन
अगले वर्ष का आयोजन:
दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में भव्य आर्य सम्मेलन
मुख्य उपलब्धि:
अंतर्राष्ट्रीय आर्य निर्मात्री सभा का गठन
राष्ट्रीय आर्य निर्मात्री सभा की यह यात्रा केवल एक संगठन के विस्तार की नहीं, बल्कि वैदिक शिक्षा, आर्य संस्कृति और समाज में नैतिकता व आध्यात्मिकता के पुनरुत्थान की भी गाथा है। इसके विभिन्न अधिवेशनों और सम्मेलनों ने न केवल युवाओं को आर्य विद्या से जोड़ा, बल्कि समाज में चेतना और जागरूकता भी फैलाई।
आर्य समाज के उत्थान और आर्य विद्या के प्रचार-प्रसार का संगठित प्रयास
गुरुकुल प्रणाली और स्वराज्य प्रतिस्थापना की दिशा में ठोस पहल
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आर्य समाज के विचारों का प्रसार
प्रांतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आर्य निर्मात्री सभाओं का गठन
आर्य समाज में प्रवेश करने के विभिन्न कारणों और प्रक्रियाओं पर प्रकाश डालने के लिए एक रोचक कथा दी गई है। इस कथा के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि लोग अक्सर किसी बाहरी प्रभाव या संयोगवश आर्य समाजी बन जाते हैं, लेकिन वास्तविक रूप से आर्य बनने के लिए वैदिक सिद्धांतों का गहन अध्ययन आवश्यक है।
एक पंडित जी कथा सुना रहे थे, और एक वृद्धा अत्यंत भावुकता से कथा सुन रही थी।
कथा के दौरान वृद्धा बार-बार रो पड़ती थी, जिससे पंडित जी यह सोचने लगे कि वह कथा के रहस्यों को समझ रही है।
जब पंडित जी ने उससे पूछा कि वह क्यों रो रही है, तो वृद्धा ने बताया कि उसे अपनी मृत बकरी की याद आ रही थी, जिसकी दाढ़ी पंडित जी जैसी थी।
इस घटना से यह निष्कर्ष निकलता है कि लोग अपनी धारणाओं के आधार पर किसी भी विचारधारा को अपनाने लगते हैं, बिना गहराई से उसका मर्म समझे।
जातिगत परंपरा – अपनी जाति में आर्य समाज की उपस्थिति देखकर यज्ञोपवीत संस्कार ले लिया और आर्य बन गए।
परिवारिक प्रभाव – माता-पिता या अन्य रिश्तेदारों के कारण आर्य समाज में प्रवेश कर लिया।
पिताजी वृद्ध हो गए, इसलिए गद्दी संभालने हेतु आर्य समाज में सक्रिय हो गए।
किसी बड़े व्यक्ति को आर्य समाजी बने देखा, तो प्रेरित होकर आर्य समाजी बन गए।
विवाह आर्य समाज की विधि से हुआ, तो स्वाभाविक रूप से आर्य समाजी बन गए।
किसी भजनोपदेशक का भजन सुनकर भाव विभोर हुए और आर्य समाजी बन गए।
मूर्तिपूजा से चिढ़ थी, इसलिए आर्य समाजी बन गए।
हवन, संध्या और वेद मंत्रों का प्रभाव पड़ा, इसलिए आर्य समाज में प्रवेश किया।
आर्य समाज के सत्संग में नियमित रूप से आने लगे और धीरे-धीरे आर्य समाजी बन गए।
DAV स्कूल में पढ़े और हवन आदि में भाग लेते-लेते आर्य समाज से जुड़ गए।
गुरुकुल में पढ़ाई की, तो स्वाभाविक रूप से आर्य समाजी बन गए।
आर्य समाज में प्रमुख पद (प्रधान/मंत्री) पाने के लिए आर्य समाजी बन गए।
वानप्रस्थ में रहने के लिए आश्रय की आवश्यकता थी, इसलिए आर्य समाज में प्रवेश किया।
आर्य समाज के माध्यम से सामाजिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा पाने की इच्छा थी, इसलिए आर्य समाजी बन गए।
आर्य समाज में लाठी-डंडे की शिक्षा दी जाती थी, इसलिए सीखने आए और आर्य समाजी बन गए।
विरोधियों से लड़ाई में सहायता मिली, तो आर्य समाजी बन गए।
आर्य समाज के नियमों और परंपराओं का पालन करने की वजह से धीरे-धीरे आर्य समाजी बन गए।
सभा के सदस्य बनने के कारण आर्य समाज में प्रवेश कर लिया।
नाम में "आर्य" जोड़ लिया, इसलिए आर्य समाजी बनना अनिवार्य समझ लिया।
केवल ऊपर बताए गए बाहरी कारणों से आर्य समाज में प्रवेश करना पर्याप्त नहीं है।
आर्य बनने के लिए वैदिक सिद्धांतों का गहन अध्ययन आवश्यक है।
सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रंथों को ठीक से पढ़ना और समझना जरूरी है।
आर्य बनने की केवल एक ही सही पद्धति है – वैदिक ज्ञान और सिद्धांतों का अध्ययन और अनुसरण।
पहले गुरुकुल और फिर स्वाध्याय के माध्यम से वैदिक शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।
क्रमिक, सिद्धांतसम्मत व्याख्यान भी सहायक हो सकते हैं, लेकिन मनोरंजनात्मक या सतही उपदेशों से कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ता।
लोग विभिन्न कारणों से आर्य समाज में प्रवेश कर जाते हैं, लेकिन वे सच्चे आर्य नहीं बन पाते।
आर्य बनने के लिए केवल नाम, परंपरा, या बाहरी प्रभाव से प्रभावित होना पर्याप्त नहीं है।
वास्तविक आर्य बनने के लिए वैदिक ज्ञान और सिद्धांतों को समझना और उन पर चलना अनिवार्य है।
अतः, आर्य समाज में स्थायित्व और गहनता लाने के लिए वेदों और सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रंथों का अध्ययन करना ही सर्वोत्तम मार्ग है।
📖 स्रोत:
पं. परमदेव मीमांसक कृत
आर्य महासंघ के तत्वावधान में प्रकाशित – राष्ट्रीय आर्य निर्मात्री सभा