✅ वैदिक धर्म – सभी मतों का मूल आधार
✅ सृष्टि के प्रारम्भ से अस्तित्व में (1.96 अरब वर्ष पुराना)
✅ अपौरुषेय वेद – मनुष्यों द्वारा रचित नहीं, ईश्वरीय ज्ञान
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✅ एक निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, न्यायकारी ईश्वर
✅ ईश्वर कभी अवतार नहीं लेता (देहधारी नहीं होता)
✅ जीव, ईश्वर और प्रकृति – तीनों की सत्ता अलग-अलग
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✅ वैदिक धर्म के सभी सिद्धांत वैज्ञानिक तर्कों पर आधारित
✅ अन्य मतों में अवैज्ञानिक मान्यताएँ प्रचलित
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✅ तीर्थ – शारीरिक स्थान नहीं, बल्कि उत्तम कर्म हैं
✅ विद्या, सत्संग, परोपकार, योगाभ्यास ही वास्तविक तीर्थ
✅ मूर्ति पूजा, ज्योतिष, जादू-टोना आदि वैदिक धर्म के विरुद्ध
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✅ स्वर्ग-नरक कोई स्थान नहीं, बल्कि सुख-दुःख की स्थिति है
✅ अच्छे कर्म करने से उत्तम जन्म, बुरे कर्म से निम्न योनि प्राप्त होती है
✅ गंगा-स्नान या अनुष्ठानों से पापों का नाश नहीं होता
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✅ मनुष्य जन्म से नहीं, गुण-कर्म के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र बनता है
✅ अछूत कोई नहीं, स्वच्छता ही मुख्य आधार
✅ स्त्री और शूद्र को वेद पढ़ने का समान अधिकार
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✅ 16 संस्कार – मनुष्य को उत्तम बनाने के लिए आवश्यक
✅ चार आश्रम – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास
✅ पंचमहायज्ञ – प्रत्येक गृहस्थ के लिए अनिवार्य
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✅ गुरु महत्वपूर्ण, लेकिन 'गुरुडम' और अंधश्रद्धा गलत
✅ चमत्कार का कोई अस्तित्व नहीं, यह मात्र अंधविश्वास है
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✅ ‘नमस्ते’ ही प्राचीनतम वैदिक प्रणाम प्रणाली
✅ ईश्वर के अनगिनत नाम, लेकिन ‘ओ३म्’ मुख्य नाम
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✅ वैदिक धर्म सत्य, ज्ञान और तर्क पर आधारित है
✅ आधुनिक समाज के लिए प्रासंगिक और आवश्यक
✅ अंधविश्वास, पाखंड और मूर्तिपूजा से मुक्त धर्म
✅ मानव मात्र के कल्याण हेतु स्थापित सनातन ज्ञान
🔷 "ओ३म्" का उच्चारण करें और सत्यज्ञान को अपनाएँ! 🔷
(१) वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की सभी भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अर्थात् १,९६,०८,५३,१२५ वर्ष से अभी तक अस्तित्व में है। संसार भर के अन्य मत, पन्थ किसी पीर-पैगम्बर, मसीहागुरु, महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं, किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है, किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।
(२) वैदिक धर्म में एक निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य (उपास्य) माना जाता है, उसके स्थान में अन्य देवी-देवताओं को नहीं।
(३) ईश्वर अवतार नहीं लेता अर्थात् कभी भी शरीर धारण नहीं करता।
(४) जीव और ईश्वर (ब्रह्म) एक नहीं हैं बल्कि दोनों की सत्ता अलग-अलग है और मूल प्रकृति इन दोनों से अलग तीसरी सत्ता है। ये तीनों अनादि हैं, तीनों ही एक दूसरे से उत्पन्न नहीं होते।
(५) वैदिक धर्म के सब सिद्धान्त सृष्टिक्रम के नियमों के अनुकूल तथा बुद्धि सम्मत हैं। जबकि अन्य मतों के बहुत से सिद्धान्त बुद्धि की घोर उपेक्षा करते हैं।
(६) हरिद्वार, काशी, मथुरा, कुरुक्षेत्र, अमरनाथ, प्रयाग आदि स्थलों का नाम तीर्थ नहीं है। जो मनुष्यों को दुःख सागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं। विद्या, सत्संग, सत्यभाषण, पुरुषार्थ, विद्यादान, जितेन्द्रियता, परोपकार, योगाभ्यास, शालीनता आदि शुभ तीर्थ हैं।
(७) भूत-प्रेत डाकिन आदि के प्रचलित स्वरुप को वैदिक धर्म में स्वीकार नहीं किया जाता है। भूत-प्रेत शब्द आदि तो मृत शरीर के कालवाची शब्द हैं और कुछ नहीं।
(८) स्वर्ग के देवता अलग से कोई नहीं होते। माता-पिता, गुरु, विद्वान तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि ही स्वर्ग के देवता होते हैं, जिन्हें यथावत रखने व यथायोग्य उपयोग करने से सुख रुपी स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
(९) स्वर्ग और नरक: स्वर्ग और नरक किसी स्थान विशेष में नहीं होते, सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक है और वे भी इसी संसार में शरीर के साथ ही भोगे जाते हैं। स्वर्ग-नरक के सम्बन्ध में गढ़ी हुई कहानियों का उद्देश्य केवल कुछ निष्कर्मण्य लोगों का भरण-पोषण करना है।
(१०) मुहूर्तः जिस समय चित्त प्रसन्न हो तथा परिवार में सुख-शान्ति हो वही मुहूर्त है। ग्रह नक्षत्रों की दिशा देखकर पण्डितों से शादी ब्याह, कारोबार आदि के मुहूर्त निकलवाना शिक्षित समाज का लक्षण नहीं है, क्योंकि दिनों का नामकरण हमारा किया हुआ है, भगवान का नहीं, अतः दिनों को हनुमान आदि के व्रतों और शनि आदि के साथ जोड़ना व्यर्थ है। अर्थात् अवैदिक है।
(११) राशिफल एवं फलित ज्योतिष: ग्रह नक्षत्र जड़ हैं और जड़ वस्तु का प्रभाव सभी पर एक सा पड़ता है अलग-अलग नहीं। अतः ग्रह नक्षत्र देखकर राशि निर्धारित करना एवं उन राशियों के आधार पर मनुष्य के विषय में भांति-भांति की भविष्यवाणियां करना नितान्त अवैज्ञानिक है। जन्मपत्री देखकर वर-वधू का चयन करने के बजाए हमें गुण-कर्म-स्वभाव एवं चिकित्सकीय परीक्षण के आधार पर ही रिश्ते तय करने चाहिएं। जन्मपत्रियों का मिलान करके जिनके विवाह हुए हैं क्या वे दम्पति पूर्णतः सुखी हैं? विचार करें राम-रावण व कृष्ण-कंस की राशि एक ही थी।
(१२) चमत्कार: दुनिया में चमत्कार कुछ भी नहीं है। हाथ घुमाकर चेन, लाकेट बनाना एवं भभूति देकर रोगों को ठीक करने का दावा करने वाले क्या उसी चमत्कार विद्या से रेल का इंजन व बड़े-बड़े भवन बना सकते हैं? या कैंसर, ह्रदय तथा मस्तिष्क के रोगों को बिना ऑपरेशन के ठीक कर सकते हैं? यदि वह ऐसा कर सकते हैं तो उन्होंने अपने आश्रमों में इन रोगों के उपचार के लिए बड़े-बड़े अस्पताल क्यों बना रखे हैं? वे अपनी चमत्कारी विद्या से देश के करोड़ों अभावग्रस्त लोगों के दुःख-दर्द क्यों नहीं दूर कर देते? असल में चमत्कार एक मदारीपन है जो धर्म की आड़ में धर्मभीरु जनता के शोषण का बढ़िया तरीका है।
(१३) गुरु और गुरुडम: जीवन को संस्कारित करने में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है। अतः गुरु के प्रति श्रद्धाभाव रखना उचित है। लेकिन गुरु को एक अलौकिक दिव्य शक्ति से युक्त मानकर उससे 'नामदान' लेना, भगवान या भगवान का प्रतिनिधि मानकर उसका अथवा उसके चित्र की पूजा अर्चना करना, उसके दर्शन या गुरु नाम का संकीर्तन करने मात्र से सब दुःखों और पापों से मुक्ति मानना आदि गुरुडम की विष-बेल है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है। अतः इसका परित्याग करना चाहिए।
(१४) मृतक कर्म: मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का दाहकर्म करने के पश्चात् अन्य कोई करणीय कार्य शेष नहीं रह जाता। आत्मा की शान्ति के लिए करवाया जाने वाला गरुड़पुराण आदि का पाठ या मन्त्र जाप इत्यादि धर्म की आड़ लेकर अधार्मिक लोगों द्वारा चलाया जाने वाला प्रायोजित पाखण्ड है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है।
(१५) राम, कृष्ण, शिव, ब्रह्मा, विष्णु आदि ऐतिहासिक महापुरुष थे न कि वे ईश्वर या ईश्वर के अवतार थे।
(१६) जो मनुष्य जैसे शुभ या अशुभ (बुरे) कर्म करता है उसको वैसा ही सुख या दुःख रुप फल अवश्य मिलता है। ईश्वर किसी भी मनुष्य के पाप को किसी परिस्थिति में क्षमा नहीं करता है।
(१७) मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है, चाहे वह स्त्री हो या शूद्र।
(१८) प्रत्येक राष्ट्र में राष्ट्रोन्नति के लिए गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चार ही प्रकार के पुरुषों की आवश्यकता है इसीलिए वेद में चार वर्ण स्थापित किये हैं- १. ब्राह्मण, २. क्षत्रिय, ३. वैश्य, ४. शूद्र।
(१९) व्यक्तिगत उन्नति के लिए भी मनुष्य की आयु को चार भागों में बांटा गया है इन्हें चार आश्रम भी कहते हैं। २४ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य आश्रम, २५ से ५० वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम, ५० से ७५ वर्ष की अवस्था तक वानप्रस्थाश्रम और इसके आगे संन्यासाश्रम माना गया है।
(२०) जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र नहीं होता। अपने-अपने गुण-कर्म-स्वभाव से ब्राह्मण आदि कहलाते हैं, चाहे वे किसी के भी घर में उत्पन्न हुए हों।
(२१) भंगी, चमार आदि के घर उत्पन्न कोई भी मनुष्य जाति या जन्म के कारण अछूत नहीं होता। जब तक गंदा है तब तक अछूत है, चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या भंगी या अन्य कोई।
(२२) वैदिक धर्म पुनर्जन्म को मानता है। अच्छे कर्म अधिक करने पर अगले जन्म में मनुष्य का शरीर और बुरे कर्म करने पर पशु, पक्षी, कीट-पतंग आदि का शरीर, अपने कर्मों को भोगने के लिए मिलता है। जैसे अपराध करने पर मनुष्य को कारागार में भेजा जाता है।
(२३) गंगा-यमुना आदि नदियों में स्नान करने से पाप नहीं धुलते। वेद के अनुसार उत्तम कर्म करने से व्यक्ति भविष्य में पाप करने से बच सकता है। जल से तो केवल शरीर का मल साफ होता है, आत्मा का नहीं।
(२४) पंच महायज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी के लिए आवश्यक है।
(२५) मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा को संस्कारी (उत्तम) बनाने के लिए गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त १६ संस्कारों का करना सभी गृहस्थजनों का कर्तव्य है।
(२६) मूर्तिपूजा, सूतियों का जल विसर्जन, जगराता, कांवड़ लाना, छुआछूत, जाति-पाति, जादू-टोना, डोरा-गंडा, ताबिज, शगुन, जन्मपत्री, फलित ज्योतिष, हस्तरेखा, नवग्रह पूजा, अन्धविश्वास, बलि-प्रथा, सतीप्रथा, मांसाहार, मद्यपान, बहुविवाह आदि सामाजिक कुरीतियां वैदिक राह से भटक जाने के बाद हिन्दू धर्म के नाम से बनी हुई हैं, वेदों में इनका नाम भी नहीं है।
(२७) वेद के अनुसार जब मनुष्य सत्यज्ञान को प्राप्त करके निष्काम भाव से शुभकर्मों को प्राप्त करता है और महापुरुषों की भांति उपासना से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है। तब उसकी अविद्या (राग-द्वेष आदि की वासनाएं) समाप्त हो जाती है। मुक्ति में जीव ३१ नील, १० खरब, ४० अरब वर्ष तक सब दुःखों से छूटकर केवल आनन्द का ही भोग करके फिर लौटकर मनुष्यों में उत्तम जन्म लेता है।
(२८) जब-जब मिलें तब-तब परस्पर 'नमस्ते शब्द' बोलकर अभिवादन करें। यही भारत की प्राचीनतम वैदिक प्रणाली है।
(२९) वेद में परमेश्वर के अनेक नामों का निर्देश किया है जिनमें मुख्य नाम 'ओ३म्' है। शेष नाम गौणिक कहलाते हैं अर्थात् यथा गुण तथा नाम।
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🚩‼️ वेद मंत्र ‼️ 🚩
🌷 ओ३म् शं नो देव: विश्वदेवा भवन्तु शं सरस्वती सह धीभिरस्तु। शमभिषाच: शमु रातिषाच: शं नो दिव्या पार्थिवा: शं नो अप्या: (ऋग्वेद ७|३५|११)
💐 अर्थ:- दिव्य गुण युक्त विद्वान हमारे लिए सुखकारी हो, ज्ञान-विज्ञान वाली वेद विद्या उत्तम क्रियाओं सहित हमें सुखदायक हो, यज्ञकर्त्ता और आत्मदर्शी जन हमें सुख देने वाले हो, विद्या धनादि प्रदान करने वाले हमें सुखदायी हो, द्युलोक, आकाश और पृथ्वी के पदार्थ हमें सुखदायक हो, जल के पदार्थ हमें सुखकारी हो।
यह मंत्र वेदों के प्रथम मंत्रों में से एक है, जिसमें "अग्नि" शब्द के माध्यम से दो स्तरों पर अर्थ प्रकट होते हैं—(1) दैविक (परमेश्वर का बोध) और (2) भौतिक (अग्नि तत्व का बोध)। यास्क मुनि, शतपथ ब्राह्मण, और अन्य प्रमाणों के आधार पर यह पुष्टि होती है कि अग्नि शब्द परमात्मा और जड़ अग्नि, दोनों के लिए प्रयुक्त होता है।
अग्निमीळे
मैं अग्नि की स्तुति करता हूँ
पुरोहितम्
सृष्टि के पहले धारण करने वाला
यज्ञस्य
यज्ञ के लिए, ज्ञान एवं सत्कर्मों हेतु
देवम्
प्रकाशमान, ज्ञान एवं ऐश्वर्य देने वाला
ऋत्विजम्
ऋतुओं एवं कालचक्र को नियंत्रित करने वाला
होतारम्
कर्मों का ग्रहण व दान करने वाला
रत्नधातमम्
श्रेष्ठ वस्तुओं को धारण करने वाला
(1) दैविक अर्थ (परमेश्वर)
🔹 अग्नि = ब्रह्म
यह वेदों में 'सद्ब्रह्म' का प्रतीक है, जो सृष्टि के आरंभ में सर्वप्रथम प्रकाशित होता है।
यजुर्वेद (तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः) में भी अग्नि को ब्रह्म का प्रतीक कहा गया है।
"ईश्वर ही यज्ञों का आधार एवं पालनकर्ता है।"
मनुस्मृति (प्रशासितारम्…) में भी परमेश्वर के अग्नि आदि नाम प्रसिद्ध हैं।
(2) भौतिक अर्थ (अग्नि तत्व)
🔹 अग्नि = ऊर्जा, शक्ति, भौतिक अग्नि
भौतिक अग्नि में दाहक गुण (जलाने की शक्ति) होता है।
यह विमान, यान, एवं ऊर्जा स्रोत के रूप में प्रयुक्त होता है।
शतपथ ब्राह्मण (यदश्वं…) में इसे बलशाली 'अश्व' कहा गया है, जो यंत्रों से तीव्रगामी होता है।
सृष्टि से पहले
परमात्मा के रूप में अग्नि (ऊर्जा) समस्त ब्रह्मांड का आधार है।
यज्ञ में अग्नि
ऊर्जा रूप में अग्नि सभी कर्मों में उपस्थित रहती है।
परमेश्वर का प्रकाश
ज्ञान एवं चेतना के रूप में अग्नि सत्य का बोध कराती है।
भौतिक अग्नि
विज्ञान की दृष्टि से अग्नि, विद्युत, एवं ज्वलनशील ऊर्जा का रूप है।
ऋग्वेद (त्रिभिः पवित्रैः…)
अग्नि ज्ञान एवं प्रकाश का प्रतीक है।
शतपथ ब्राह्मण (अग्निर्वै यो…)
भौतिक अग्नि ऊर्जा के रूप में प्रयोग होती है।
मनुस्मृति (एतमेव अग्निम…)
परमात्मा की अग्नि के रूप में उपासना की जाती है।
अग्नि का अर्थ केवल अग्नि तत्व नहीं, बल्कि परमात्मा का भी बोध कराता है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, अग्नि ऊर्जा का स्रोत है और संपूर्ण यांत्रिक व भौतिक संसार का आधार है।
दर्शन की दृष्टि से, अग्नि 'सत्य' और 'ज्ञान' का प्रतीक है।
यास्क मुनि एवं शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, अग्नि शब्द ईश्वर एवं जड़ अग्नि, दोनों का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रश्न 1: "अग्निमीळे" का क्या अर्थ है?
🔸 उत्तर: "मैं अग्नि (परमेश्वर) की स्तुति करता हूँ।"
प्रश्न 2: "अग्नि" के कितने अर्थ हैं?
🔸 उत्तर: दो अर्थ हैं—(1) परमात्मा, (2) भौतिक अग्नि (ऊर्जा)।
प्रश्न 3: "होतारम्" किसे कहते हैं?
🔸 उत्तर: जो यज्ञ में हवि (अर्पण) को ग्रहण करता है।
प्रश्न 4: "रत्नधातमम्" का क्या अभिप्राय है?
🔸 उत्तर: वह जो समस्त बहुमूल्य रत्नों (संपत्तियों) को धारण करता है, अर्थात् परमेश्वर एवं भौतिक अग्नि।
प्रश्न 5: "अग्नि" और "ब्रह्म" का संबंध क्या है?
🔸 उत्तर: अग्नि ब्रह्म का ही एक प्रतीक है, जो ज्ञान एवं प्रकाश का द्योतक है।
दैविक अग्नि
परमात्मा का प्रतीक, प्रकाश, सत्य एवं ज्ञान
भौतिक अग्नि
ऊर्जा, उष्णता, यंत्रों को चलाने वाली शक्ति
यज्ञीय अग्नि
यज्ञ में कर्मों को पूर्ण करने वाली शक्ति
वैज्ञानिक दृष्टि
ऊर्जा के रूप में अग्नि, पदार्थों के दहन की शक्ति
🔹 वेदों में 'अग्नि' का अर्थ केवल भौतिक अग्नि नहीं, बल्कि परमेश्वर की सत्ता और ऊर्जा का स्रोत भी है।
🔹 यह मंत्र यज्ञ, विद्या, कर्म, और ऊर्जा का द्योतक है, जिससे संपूर्ण सृष्टि संचालित होती है।
🔹 ऋषियों ने अग्नि को परम चेतना (ब्रह्म) और जड़ अग्नि, दोनों का प्रतीक माना है।
🙏 ओ३म् अग्नये नमः 🙏