वेदों के अनुसार धर्म की परिभाषा
वेदों में धर्म का उल्लेख व्यापक और गहन रूप में किया गया है। धर्म को वेदों में मानव जीवन के समग्र आदर्श, आचरण, और जीवन के नियमन के रूप में वर्णित किया गया है। यह केवल व्यक्तिगत कर्तव्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे ब्रह्मांडीय व्यवस्था (ऋत) का पालन करने वाला सिद्धांत माना गया है।
वेदों में धर्म के मुख्य पहलू:
ऋत (ऋतं):
वेदों के अनुसार धर्म का आधार ऋत है, जो ब्रह्मांडीय नियमों और नैतिक व्यवस्था को बनाए रखने वाली शक्ति है।
ऋग्वेद (10.85.1) में ऋत को सत्य, न्याय और ब्रह्मांड के संतुलन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ऋत का पालन करने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में सुसंयमित रहता है।
सत्य (सत्यं):
वेदों में सत्य को धर्म का प्रमुख तत्व माना गया है।
"सत्यं वद, धर्मं चर" (तैत्तिरीय उपनिषद, 1.11) का निर्देश सत्य बोलने और धर्म का पालन करने पर जोर देता है।
सत्य वह है जो स्थायी और अटल है, और यह धर्म के सभी पहलुओं में निहित है।
यज्ञ (यज्ञं):
यज्ञ, जो वेदों में समर्पण और सेवा का प्रतीक है, धर्म का एक प्रमुख अंग है।
यज्ञ केवल वैदिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि इसे एक कर्म के रूप में देखा गया है जो व्यक्तिगत और सामूहिक कल्याण के लिए है।
ऋग्वेद (10.90) में "पुरुषसूक्त" यज्ञ को विश्व की रचना और स्थिरता से जोड़ा गया है।
कर्म (कर्मं):
वेदों में धर्म को कर्म (कर्तव्य) के रूप में परिभाषित किया गया है।
व्यक्ति का कर्म उसके समाज, स्थिति और जीवन के चरण (आश्रम) के अनुसार निर्धारित होता है।
कर्म का पालन ऋग्वेद (1.164.50) में वर्णित "एकं सद विप्रा बहुधा वदंति" के आदर्श के अनुरूप होता है।
ऋण (ऋणं):
धर्म को तीन ऋणों (पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण) के पालन से भी जोड़ा गया है।
यजुर्वेद (40.1) में कहा गया है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए इन ऋणों का निवारण करना चाहिए।
अहिंसा (अहिंसा परमो धर्मः):
वेदों में अहिंसा को धर्म का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है।
यजुर्वेद (36.18) में समस्त प्राणियों के प्रति करुणा और अहिंसा का महत्व बताया गया है।
धर्म के उद्देश्य (वेदों के अनुसार):
लोकसंरक्षण:
धर्म का पालन ब्रह्मांडीय संतुलन और समाज की स्थिरता बनाए रखने के लिए है।
व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण:
धर्म व्यक्ति के आध्यात्मिक उत्थान और समाज के सामूहिक कल्याण का मार्ग दिखाता है।
मोक्ष की प्राप्ति:
धर्म को मोक्ष (आत्मा की मुक्ति) के साधन के रूप में देखा गया है।
"धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः" (मनुस्मृति) यह भी वेदों की शिक्षाओं से प्रेरित है।
संक्षेप में:
वेदों में धर्म को नैतिकता, कर्तव्य, यज्ञ, सत्य, और ऋत के पालन के रूप में परिभाषित किया गया है। यह एक व्यापक और सार्वभौमिक सिद्धांत है, जो ब्रह्मांडीय और सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक है। धर्म का पालन व्यक्ति को आत्मसंतुष्टि और ब्रह्मांडीय संतुलन की ओर ले जाता है।